ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया उन्हें कौन नहीं जानता। उन्होंने अपनी वसीयत में यह लिखा था कि उनकी राजघराने की संपत्ति का बंटवारा ना हो और इसके साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि उनका बेटा उनका अंतिम संस्कार ना करें।

इतना ही नहीं यहां तक कि वह अपने बेटे जो कि कांग्रेस के लीडर थे उनसे भी काफी नाराज थी। राजमाता का देहांत 25 जनवरी 2001 में हुआ था।
इसके कुछ महीने बाद 30 सितंबर 2001 में उनके बेटे की मृत्यु हो गई हेलीकॉप्टर क्रैश में। आज हम लोग आपको राजमाता विजयाराजे सिंधिया से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी सुनाने जा रहे हैं जो आपातकाल के दौरान से जुड़ी है।

हम सब यह जानते हैं कि साल 1975 में इंदिरा गांधी ने नेशनल एमरजैंसी की घोषणा की थी। भारत में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीने का आपातकाल लगा था। यह बहुत ही विवादित समय था। उस वक्त जो भी इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज उठा था उसे जेल में डाल दिया जाता। ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी उन्हीं लोगों में शामिल थीं, जिन्हें जेल में बंद कर दिया गया था।

उन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया था और लोगों से कहा उन्होंने देश की आंतरिक समस्या के लिए खतरा पैदा किया हैं। इतना ही नही विजयाराजे सिंधिया को इस बात का पहले से ही डर था कि कहीं इंदिरा गांधी सरकार उन्हें तिहाड़ जेल में रख सकती है और हुआ भी कुछ ऐसा ही। उन्हे 3 सितंबर 1975 में जेल में ले जाया गया और उनकी पहचान कैदी नंबर 2265 बन गई। वह ग्वालियर की महारानी रह चुकी थी और अब तिहाड़ जेल के कैदी बन गए।

तब उन्हें यह बात समझ आयी की तिहाड़ जेल एक नर्क है और उन्हें उसे भोगना पड़ेगा। जो इतने ऐसो आराम में रहती थी आज वही तिहाड़ जेल में पानी का नल के लिए तरस रही थी। और काम चलाओ सफाई दो दिन में एक बार होती है। ऐसे में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और खुद को हौसला देती रही। जेल में महिलाओं को शौच करने के लिए लाइन लगाना पड़ता था। और कुछ तो अपने बच्चों के साथ खुले में जाती थी शौच करने।

राजमाता विजयाराजे को सिर्फ दो कुर्सियां,एक घटिया और एक बल्ब में गुजारा करना था। इस किस्से का जिक्र ‘राजपथ से लोकपथ पर’ नाम की किताब में है। ये किताब राजमाता विजयाराजे सिंधिया की ऑटोबायोग्राफी है और इस किताब का संपादन मृदुला सिन्हा ने किया है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.